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सरगुन की कर सेवा ,निर्गुण का कर ज्ञान। सरगुन निर्गण ते (से )परे तहाँ हमारा ध्यान।

सरगुन की कर सेवा ,निर्गुण का कर ज्ञान। 

सरगुन निर्गण ते (से )परे तहाँ हमारा ध्यान।

कबीर कहते हैं हे मनुष्य तेरे बाहर सरगुन(सगुण ) है भीतर निर्गुण है। सब प्राणी सरगुन भगवान् है। चेतना का दीपक अंदर जल रहा है वह निर्गुण है। नर नारायण रूप है इसे देह मत समझ देह तो मिट्टी का खोल है।

कबीर जेते  आत्मा  ,तेते शालिग्राम।

कबीर कहते हैं अर्थात जितने भी प्राणी है सब भगवान हैं  

कबीर कहते हैं सगुन की सेवा करो निर्गुण का ज्ञान प्राप्त करो लेकिन हमारा ध्यान दोनों से परे होना चाहिए सरगुन श्रेष्ठ है या निर्गुण इस फ़िज़ूल बात में नहीं उलझना है। 
सारा सृजन मनुष्य करता है ज्ञान विज्ञान का रचयिता वह स्वयं  है। देवताओं को उसने ही बनाया है वेदों की प्रत्येक ऋचा के साथ उसके ऋषि का नाम है छंद का नाम है। किताब ,किसी भी धार्मिक किताब (कतैब )का रचयिता भगवान नहीं है सारे देवता मनुष्य ने बनाये हैं उसी की कल्पना से उद्भूत हुए हैं यह ज्ञान है। इसे ही समझना है। 

आज जो देवी देवता पूजे जाते हैं वह वैदिक नहीं हैं। राम ,कृष्ण ,गणेश आदिक इनका कहीं उल्लेख नहीं है वैदिक साहित्य में।जिनका उल्लेख है उन्हें आज पूजा नहीं जाता। 
देवताओं का सृजन और परिवर्तन होता रहता है दशहरे पर अब दुर्गा ज्यादा पूजीं जातीं हैं राम से कहीं ज्यादा। भारत में अयोध्या में हनुमान ज्यादा पूजे जाते हैं । जो ज्यादा लाभ देगा उसकी अधिक पूजा होगी। 

ये सारे देवता मनुष्य ने बनाये हैं। उसी की सृजना है कल्पना है। पंथ और पंथ का ईश्वर भी अलग अलग है उनमें भी शाखा प्रशाखाएं हैं इनका सबका रचयिता कौन है ?मनुष्य ही है। 

सबसे ज्यादा भगवान् चरितार्थ होता है प्राणियों में अगर मिट्टी की पिंडी में भगवान् दिखता है और शून्य में दिखता है तो मनुष्य में तो और भी ज्यादा  दिखना चाहिए। 
वेदों के पुरुष सूक्त में उस विराट पुरुष (सरगुन भगवान )का ज़िक्र आता है जिसके हज़ारों नेत्र  और हाथ -पैर, सिर ग्रीवा आदिक  हैं।पूरे भूमंडल में प्राणी हैं इसका अर्थ यह है। सबके सब सरगुन भगवान् हैं। 

उपासना होगी हृदय में जिसके दस अंगुल  ऊपर वह विराट पुरुष ,जीव (परमात्म तत्व ,आत्मा आदिक )बैठा है।   

एक -एक व्यक्ति यहां व्यष्टि है उसी से समष्टि है। सभी प्राणियों का समूह समष्टि है। सभी प्राणियों का समूह परमात्मा है इसीलिए पंच परमेश्वर कहा जाता है। पांच इकठ्ठे हो गए मानों परमेश्वर  हो गए।सभी प्राणियों का समूह ही सरगुन भगवान् कहलाता है  कबीर के यहां।सरगुन की सेवा करो।निर्गुण का ज्ञान प्राप्त करो।  

सबकी पृथ्वी के समस्त प्राणियों की तो कोई भी  सेवा नहीं कर सकता है मनुष्य चाहे कितना ही ताकतवर हो धनवान हो लेकिन नुक्सान करना आदमी छोड़ दे तो सब की सेवा हो गई।यहां भावना प्रधान बात है। यहां तो हम एक दूसरे को धोखा देने में लगे हुए हैं एक दूसरे का नुक्सान करने में लगे हुए हैं।एक दूसरे को नौंचने खसोटने में लगे हुए हैं। तीन -तीन घंटा पूजा करने वाले जब दुकान पर बैठेंगे तो जो असली सरगुन भगवान आया है दूकान पर उसे  चूना लगाएंगे।उसको धोखा देंगे वैसे वह  सरगुन भक्त कहलाते हैं। 

आफिस में बैठे हैं बिना घूस लिए काम नहीं करेंगे। कहने को भगवान् के भक्त हैं। सर्वत्र भगवान् को मानते हैं सब जगह मानते हैं। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान मानते हैं। घूस लेते हैं तो किस से छिपाते हैं ?किस से डरते हैं ?

मनुष्य से छिपाते हैं तो विश्वास  नहीं है जबानी जमा खर्च ज्यादा है। असली भगवान् यह प्राणी है प्राणी मात्र पर करुणा मनुज से प्रेम होना चाहिए और भेद रहित प्रेम होना चाहिए। वर्ण भावना ,क्षेत्र की भावना ,जाति भावना छोड़कर के व्यापक प्रेम होना चाहिए। और अन्य प्राणियों के,सभी  प्राणियों के प्रति  करुणा ,ये सब भगवद स्वरूप हैं। 

ये उदार भाव जब होगा तो आदमी घूस किस से  लेगा।जिस से घूस ले रहा है वह भगवान है। लेकिन हम बहुत चतुर हैं ऐसा भगवान् ढूंढते हैं जो खाता नहीं हैं और जो असली भगवान् है दरिद्रनारायण है ,उसकी खुराक छीन ते हैं। ये हमारी भक्ति है। लेकिन परस्पर प्रेम व्यवहार नहीं है सद्भावना नहीं है। सुबह नींद खुले परिवार के सब सदस्य सरगुन भगवान् हैं।ऐसा ख्याल रहे ,ऐसा ही देखें।  ऐसे में घृणा किस से होगी ?परिवार में सुख शान्ति होगी। 

लेकिन आदमी हर दम प्रति-क्रिया में रिएक्शन में जलता है। किसी ने कुछ कह दिया है तो भटक रहा है जबकि हमारे मन में मलाल नहीं होना चाहिए। प्रेम इसे ही कहते हैं जिसने कहा है वह अपने कहे का किये का (दुःख) फल भोगेगा। 
अपने मन को संभालना है। 

सब खो जाता है किसी का कुछ रहता नहीं है ,कल किसी ने कुछ कह दिया था ,चालीस साल पहले किसी ने कुछ कह दिया था आज उसका क्या मूल्य है ?

यह लोक अंध भूत है। बहुत थोड़े लोग हैं जो मौत को देखते हैं। सारे ऐश्वर्य को शून्य में जो देखता है वही गौतम बुद्ध की तरह देखता है। हमारे पूर्वजों  का ,माता पिता का ऐश्वर्य शून्य हो गया। हमारे गुरुजनों का  ऐश्वर्य शून्य हो गया। 

कार्य -कारण की निरंतर व्यवस्था है प्रकृति में। मकान ,दूकान वस्त्र ये जो भी चीज़ें हैं ये थोड़े ही दिन में बदलकर कुछ की कुछ हो जाएंगी।यहां संसार में सब  मिट्टी है और मिट्टी में परिवर्तन है। बस मिट्टी -मिट्टी ही चारों तरफ है। आप चेतन आत्मा है ज्ञान स्वरूप हैं। आपके चारों तरफ मिट्टी है शरीर मिट्टी है शरीर के ऊपर पड़ा हुआ कपड़ा मिट्टी  है।उपयोग इसका है जब तक मिट्टी मिट्टी है।जीव शरीर से निकल गया फिर सब मिट्टी है।  

जितने क्षण के लिए हम अपने चित्त में  मैल लाएंगे ,उतना ही वह गंदा होगा। देरी नहीं लगेगी।मन को हर दम संभालना चाहिए। काम क्रोध मोह से बचाये रहना चाहिए हर दम। जो बन सके सेवा करे सरगुन की। जितने प्राणी दिखाई देते हैं सबके सब  भगवान् भगवती हैं।

'मानस' का विराट स्वरूप राम के लिए है 'गीता' का कृष्ण के लिए ये दोनों सांप्रदायिक हैं। जबकि ऋग्वेद का विराट स्वरूप समष्टि के लिए है ,सबके लिए है। एक एक व्यक्ति समष्टि के हाथ पैर सिर ग्रीवा हैं। समष्टि कौन है ?समाज है। समाज भगवान् है।ये ही हज़ारों ग्रीवा सिर पैर हाथ की बात है हज़ारों लाक्षणिक है। समष्टि विराट स्वरूप के हज़ारों हाथ पैर सिर और ग्रीवा हैं। यही सरगुन भगवान् है ऋग्वेद का विराट स्वरूप (विराट पुरुष ). 

ये उदार विराट स्वरूप का वर्णन है और वैज्ञानिक है। भगवान् के विराट स्वरूप के चक्कर में मत पड़ो । प्राणियों के विराट स्वरूप विराटत्व को देखो। यही कबीर की वाणी है। 
नर नारायण रूप है तू जन जाने ते   
सरगुन भगवान् की सेवा प्राणियों के प्रति सद्भाव है। 

दूसरी बात निर्गुण का कर ध्यान।निर्गुण भीतर है सबके अंदर ज्ञान की ज्योति जलती है। हमारी ममता होनी चाहिए आत्मा में स्व : स्वरूप में लेकिन हमने अपनी ममता बना ली देह में। अपने आप को पहचाने। ये मैं मैं एक दिन छूट जाएगा। 
जागृत में भावात्मक अनुभव होता है सपने में आभासात्मक अनुभव होता है भावात्मक नहीं। सुसुप्ति में अभावात्मक अनुभव होता है। कुछ नहीं है ,कुछ नहीं जानता व्यक्ति सुसुप्ति में ,कुछ नहीं जानना भी जानना है लेकिन उसी  कुछ नहीं का बोध होता है सुसुप्ति में। जिसे होता है वह तीनों अवस्थाओं में मौजूद रहता है।तीनों अवस्था में जीव दृष्टा है। जानता है ज्ञाता है। ये आत्मा सब समय ज्ञाता है। वह अपना स्वरूप है। 
एक दिन देह नहीं रहेगी। आप रहेंगे। इस अनुभव में नहीं रहेंगे। और उस दिन की सब को  याद रहनी चाहिए ,याद करनी चाहिए। हम घर बना लिए और यहीं रम गए लेकिन एक दिन अचानक यहां से उठ के चले जाना है। इस चीज़ को समझने की जरुरत है।जो बोल रहा है चेतन मात्र है वही निर्गुण तत्व है। इसका ज्ञान होना चाहिए। 

सत ,रज, तम ये तीन गुण हैं। ये देह के साथ हैं। इसलिए देहधारी को सगुण भगवान् कहना चाहिए। शुद्ध आत्मा में सत ,रज ,तम  नहीं हैं।जिसमें गुण नहीं हैं , वह आत्मा गुणातीत है।ये समझना चाहिए ,मैं चेतन आत्मा हूँ। सबका द्रष्टा ,साक्षी ,और नित्य। अपनी अमरता का बोध तो हमें  इसी जीवन में होता है। अगर भौतिक पदार्थों का जोड़ ही 'मैं ' होता तो बचपन ,कैशोर्य ,जवानी ,प्रौढ़ावस्था की बातें भूल गया होता। विज्ञान मानता है के सात बरस में शरीर की सारी कोशिकाएं बदल जातीं हैं।सारी चमड़ी ,त्वक बदल जाती है।  सत्तर बरस मेरी उम्र है इसका मतलब यह हुआ सात  बार मेरा शरीर मेरी चमड़ी ,तमाम कोशिकाएं पूरा बदल चुकीं हैं। लेकिन 'मैं' वही हूँ।

(अयं आत्मा ब्रह्म ). 

सारे संस्कारों को याद रखने वाला आत्मा शुद्ध ,बुद्ध, निर्मल है। वही आप हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। 

"निर्गुण का  कर ज्ञान " यही निर्गुण का ज्ञान है (सरगुन की कर सेवा )
शोक ,मोह ,भय किस से है देह भाव लेकर।हम पत्नी हैं हम पति हैं,पिता हैं ,पुत्र हैं ,माता हैं ,नाना हैं  आदिक व्यवहार में ये सब हैं और व्यवहार में इसका आदर और मर्यादा होना चाहिए।लेकिन अंततया कोई किसी का नहीं है। न किसी का मामा है न काका है न दादा  है।ये दैहिक भाव है। उपाधि भेद से है। उपाधि नाम सम्बन्ध। उपाधि के भेद में पड़ने से स्वयं छिन्न भिन्न हम बने हुए हैं। सारी उपाधियों को हटा दो तो केवल निज स्वरूप रह जाएगा । देह नाम रूप में हमारी बुद्धि है। आत्मा में बुद्धि नहीं है। इसलिए हर दम खिन्न रहते हैं । 
बाल पक गए दांत उखड़ रहे हैं पीड़ित हो रहे हैं। ये तो बदलना है। पानी की धारा पर बैठ कर यदि कोई चाहे हम स्थिर रहेंगे तो भोला है। ये सारा संसार समुद्र है। समुद्र तो फिर भी छोटा है संसार तो बहुत बड़ा है उस में समुन्द्र की तरह हाहाकार है आंदोलन हैं लहरें हैं सुख की दुःख की। यहां इस समुद्र में कणों  का प्रवाह निरंतर चलता है।और उनका जोड़ सब कुछ नश्वर है। आत्मा साक्षी शुद्ध ,बुद्ध निर्मल है अपने मन को संसार से जितना हटाओगे उतना सुखी होवोगे। निर्गुण का ज्ञान करो। दिल लगाना कहीं दुनिया की चीज़ों में एक मज़ाक है अपने साथ जो हम करते हैं। क्योंकि दुनिया की कोई वस्तु स्थिर नहीं है।
बचपन से आज तक कितने प्राणी पदार्थ मिले वह सब कहाँ गए। आज जो हैं वह कहाँ रहेंगे। इसलिए निर्गुण का ज्ञान करो। आप गुणातीत आत्मा हैं। 

गुणातीत चेतन तत्व हैं। ज्ञानस्वरूप हैं। जीव शब्द मौलिक है। जैसे मनुष्य मौलिक है।उसी को रूह आत्मा खुदा गॉड सब कुछ कहा गया है।  
कबीर साहब उस ब्रह्म को नहीं मानते जो जगत स्वरूप है। उस जगत को मानते हैं जो जगत से अलग है शुद्ध ,ज्ञानस्वरूप। ब्रह्म स्वरूप बहुत आदरणीय शब्द है। ब्रह्म  का अर्थ ही होता है बड़ा। बड़ा कौन है जीव आत्मा। जीव आत्मा व्यापक है। व्यापक है , विभु है ,शक्तिशाली है ,महिमापरक शब्द है।यहां बड़े से अभिप्राय उसकी महिमा से है। 
महिमापरक शब्दों को सिद्धांत मान लेने से सिद्धांत गड़बड़ हो जाता है। आत्मा एक नहीं है अनेक हैं। एक दूसरे से सर्वथा अलग हैं।और जड़ से भी  अलग हैं।इसीलिए अलग अलग कर्मफल भोग है।  अयुगपत प्रवृत्ति है मनुष्यों  की इसीलिए अलग अलग जन्म हैं अलग अलग व्यवहार है। अलग अलग प्रवृत्तियां हैं। तीनों गुणों का विपर्य है कोई सतो गुनी है कोई तमो गुनी है कोई रजो गुनी है। पुरुष बहुत हैं एक नहीं। पुरुष  का अर्थ कबीर के यहां  होता है चेतन।
स्त्री का शरीर पुरुष का शरीर यह तो मिट्टी  का लौंदा है चेतन तत्व 'पुर- उष'  दोनों में है।सब पुरुष हैं पुरुष यानी चेतन आत्मा हैं। 

शरीर रुपी पुर में शयन करने से आत्मा को पुरुष कहते हैं। ये जीव बहुत सिद्ध है। अगर जड़ चेतन में एक ही आत्मा है एक ही  आत्मा  सब में व्याप्त है तो कौन किसको उपदेश कर रहा है ?एक का बंध दूसरी आत्मा का बंध नहीं एक का मोक्ष दूसरी आत्मा का मोक्ष नहीं है सब आत्माएं अलग अलग हैं सबके अलग अलग कर्म फल भोग है। न ये अंश है न अंशी है। अंश कहते हैं टुकड़ा को। 

'ईश्वर अंश जीव अविनाशी 'आपने सुना ही होगा।
इसका मतलब तो कबीर के अनुसार यह हो जाएगा -जीव भी नाशवान और ईश्वर भी नाशवान है क्योंकि जो टुकड़ा है वह तो नष्ट हो जाता है। विकारी पदार्थ अंश ,अंशी बनते हैं। विकारी का मतलब परिवर्तनशील। जो कणों  का समूह हो इलेक्ट्रॉन प्रोटोन न्यूट्रॉन का  इकठ्ठ हो,गतिशील हो। एक अखंड निर्विकार में अंश ,अंशी नहीं होता है। विकार में ही अंश ,अंशी का भेद होता है। 
इसीलिए 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी'- यह काल्पनिक बात है।तथ्य नहीं है। जीव किसी का अंश नहीं है। जीव तो अविनाशी है और यदि अविनाशी है तो अंश कैसा। और अंश है तो अविनाशी कैसा। दुनिया में एक भी उदाहरण नहीं है जो अंश हो और अविनाशी  भी हो।
आत्मा नित्य है न तो वह बनता है न बिगड़ता है न किसी से कुछ होता है वह अंश नहीं है। 
व्यापक व्यापक की कल्पना बेकार है जड़ चेतन अभिन्नत्व की कल्पना बेकार है। समुद्र और तरंग एक है ब्रह्म और जगत एक है ये मानेंगे तो पूरा भौतिक वाद हो जाता है। जगत अलग है ब्रह्म अलग है। ब्रह्म आप हैं स्वयं (अहं  ब्रह्मास्मि ). तत् त्वं असि। अयं आत्मा ब्रह्म।  प्रज्ञानं ब्रह्म।
कबीर ऐसा नहीं मानते हैं ,जड़ और चेतन में एक ही तत्व व्यापक है। कबीर के अनुसार जड़ जड़ है चेतन चेतन। 
जीव जीव ब्रह्म है परमात्मा है वह आपका स्वरूप ही है निजत्व है अंतर् ज्योति है बाहर कुछ नहीं है।  लेकिन हम भूल गए हैं। हमारे मन की गांठें कोम्प्लेक्सीज़ हमे  पीड़ित करते हैं। मन की गांठों को तोड़ दें। आप परमात्म स्वरूप हैं शुद्ध स्वरूप हैं ज्ञान स्वरूप है। तो इसलिए इस निर्गुण तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सत्संगियों के ,संतों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो निर्गुणका। 
'सरगुन निर्गुण ते परे ,तहाँ हमारा ध्यान '  
कुछ न सोचना ही अंतिम ध्यान है। 
योग :चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। स्मरणों के  खंड शांत हो जाएं।शून्य हो जाना शांत होना है। शून्य से अभिप्राय प्रपंच शून्य से है। जो अपना सब कुछ विसर्जन देखते है वह शून्य देखता है तब शिव का उदघाटन होता है। 

इन्द्रियाँ और ज्ञान जहां दोनों शांत हो जाते हैं वह भूमा की दशा अंतिम दशा है जब देखना ,सुनना ,औरों का बंद हो जाए। जब आदमी अपने को समेट  ले।
जीवन मुक्त पुरुष को कुछ पाना शेष नहीं रह जाता है। उसकी कोई इच्छा नहीं रहती वह मृत्यु को देख लेता है। मृत्यु का दिन रिज़ल्ट का दिन है जीवन भर की कमाई का लेखा जोखा मृत्यु के समय काम आएगा। 

सगुन निर्गुण से ऊपर उठ जाना शून्य हो जाना है। शून्य को जानना शून्य हो जाना है। आत्मा जीव स्वयं शून्य नहीं है शून्य का दृष्टा है ज्ञाता है। शून्य का साक्षी है। 
मोह छोड़ो मुक्त हो जाओ। मुक्ति किसी की बपौती नहीं है। स्वर्ग और मोक्ष पंथ की चीज़ नहीं हैं व्यक्तिक हैं। 
देह में रहते रहते निर्विकल्प को जांचे। सेवा साधना स्वाध्याय से चित्त शुद्ध होगा। 
ये जगत सरगुन भगवान् है इसकी सेवा करो। निर्मल हो जाओ। किसी का यहां क्या है? सब तो यहीं छोड़ देते हैं इसका निरंतर चिंतन करो। सेवा स्वाध्याय और साधना करो इससे चित्त शुद्ध होगा। ज्ञान की दशा जान ना और बात है। निर्गुण अपना आत्मा है उसका विवेक द्वारा ध्यान करो। ध्यान के समय न सेवा है न ध्यान। 
सन्दर्भ -सामिग्री :

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